लॉकडाउन: बदल रहा भारत में पलायन का चरित्र

भारत में अभी तक प्रवासी शब्द की कोई एक व्याख्या या परिभाषा नहीं है. भारतीय जनगणना रिपोर्ट में प्रवासी मजदूरों को ज्यादा गहराई से नहीं देखा जाता.

WrittenBy:विवेक मिश्रा
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नोवेल कोविड-19 के चलते लंबे लॉकडाउन के कारण गांव-शहर के प्रवासी सड़कों पर आ गए हैं. आए दिन प्रवासी मजदूरों का जत्था सड़कों पर अपने गांव को लौटता दिखाई दे रहा है.

मजदूर और पलायन के संबंधों पर एक बार फिर चर्चा छिड़ गई है. लेकिन दो दशक (2001-2011) से बहुत धीरे-धीरे ही सही लेकिन भारतीय पलायन का चरित्र बदल रहा है और सिर्फ गांवों से शहर की ओर ही नहीं बल्कि शहर से गांव की तरफ भी प्रवास बढ़ रहा है. गांव से शहर आने वाले प्रवासी परिवारों की रफ्तार अब थम गई है. प्रवासी परिवार शहर में ही बस जा रहे हैं, जिसमें गांव से शहर आने वाली प्रवासी महिलाओं की हिस्सेदारी ज्यादा है.

वहीं, एक दशक अंतराल के जनगणना आंकड़े (2011-2001) बता रहे हैं कि दशक के आधार पर गांव से शहर आने वाली प्रवासी महिलाओं की संख्या में कमी आई है. जबकि कुल प्रवासियों की संख्या में बढ़ोत्तरी जारी है. देश में चक्रीय पलायन का बदलता चरित्र किस नई प्रवृत्ति को जन्म दे रहा है. यह भी संभावना है कि शहरों की बुनियाद इस तरह हो कि ग्रामीणों को शहर से बाहर ही रखा जाए.

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ठेले पर अपने परिवार को ले जाता मजदूर

देश में 1990 से 2011 के बीच कुल प्रवासियों की संख्या में दोगुनी बढोत्तरी हुई है. 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में अभी कुल 45 करोड़ से ज्यादा प्रवासी हैं. जबकि 1991 जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक तब प्रवासियों की संख्या 22.0 करोड़ थी. 1991 से 2011 के बीच प्रवासियों की संख्या में लगभग दोगुनी बढ़ोत्तरी हुई है. इसके बावजूद भारत में अभी तक प्रवासी शब्द की कोई एक व्याख्या या परिभाषा नहीं है.

भारतीय जनगणना रिपोर्ट में प्रवासी मजदूरों को ज्यादा गहराई से नहीं देखा जाता, खासतौर से अंतर्राज्यीय यानी एक राज्य से दूसरे राज्य में रोजगार और व्यवसाय के लिए प्रवास करने वालों का आंकड़ा काफी महत्वपूर्ण है, जिसे जनगणना में नहीं देखा गया. जबकि नेशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट प्रवासी की परिभाषा को लेकर अलग राय रखती है. इसलिए आंकड़ा संग्रहण एक बड़ी परेशानी के तौर पर सामने आया है.

आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय की 18 सदस्यीय वर्किंग कमेटी ने प्रवास (माइग्रेशन) पर अपनी सिफारिशी रिपोर्ट में ऐसी कई अहम बाते कही हैं. वर्किंग कमेटी की रिपोर्ट में अहम चीजें हैं जो पलयान के बदलते चरित्र से पर्दा खोलती हैं. पहला कि दो जनगणना रिपोर्ट (2011-2001) के मध्य घटित होने वाला पलायन (इंटरसेंशल माइग्रेशन) क्यों हो रहा है और गांव-शहर के बीच उसकी दिशा क्या है. दूसरी अहम चीज है कि महिला और पुरुष के लिए पलयान की क्या-क्या प्रमुख वजह है और इनका प्रतिशत कितना है?

रिक्शे से घर लोग निकल पड़े थे.

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जनगणना छोटी अवधि वाले प्रवास के प्रवाह को अपनी गणना में नहीं शामिल करता है. जबकि भविष्य में छोटी अवधि के लिए काम के सिलसिले में पलायन की धारणा और मजबूत हो सकती है. ज्यादा शहरी केंद्रों के उभार और वहां तक पहुंच पलायन की नई प्रकृति भी बन सकती है. हो सकता है लोग बेहद कम समय के लिए किसी शहर में जाकर काम करें और फिर वापस आ जाएं. मसलन कम्यूटिंग यानी साधन की खोज करके शहरों की तरफ जाना और फिर वापस आ जाना. यह काम के सिलसिले में पलायन की नई प्रवृत्ति हो सकती है.

शहर से शहर, गांव से शहर

शहर से शहर पलायन करने वालों की संख्या 15.2 फीसदी से बढ़कर 22.6 फीसदी (टेबल में वैल्यू 23 फीसदी है) तक बढ़ी है. शहरी क्षेत्रों में काम संबंधी प्रवासियों को अलग रखें तो शहर से निकलने वाले प्रवासियों की संख्या 2001 में 33.7 फीसदी थी जो 2011 में बढ़कर 42.4 फीसदी तक पहुंच गई है. यह दर्शाता है कि शहर से शहर के बीच पलायन एक उभरती हुई अवधारणा है.

काम के लिए शहर से शहर के बीच का पलायन हमें सतर्क भी करता है. वर्किंग ग्रुप ने कहा है कि यह संभावना है कि शहरों में गांव के उन लोगों के लिए एक बाधा खड़ी खर दी जाए जो शहरों को पहुंचना चाहते हैं. वहीं शहरों का निर्माण कुछ लोगों को बाहर रखकर भी किया जा सकता है. इसे एक्सकलुजनरी अर्बनाइजेशन कहते हैं.

चलते-चलते सड़क पर जब परिजन रुके तो मासूम थककर बैग पर ही लेट गया

सिर्फ ग्रामीण ही शहरों की ओर पलायन नहीं कर रहे हैं बल्कि शहर से गांवों की ओर भी पलायन हो रहा है. एक दशक जनगणना अंतराल में शहर से गांव जाने प्रवास करने वालों की संख्या 63 लाख से बढ़कर 1.15 करोड़ तक पहुंची है.

यह भी देखने लायक है कि जनगणना के आधार पर प्रवासियों को शहरी और ग्रामीण जगह के हिसाब से वर्गीकृत नहीं किया गया है. वहीं धीरे-धीरे शहरी और ग्रामीण प्रवासियों के बीच की रेखा भी धूमिल हो रही है.

श्रमबल की गतिशीलता

1991 से 2001 और 2001 से 2011 की दो जनगणनाओं के बीच कार्यबल में बंटवारा करने पर यह पता चलता है कि 1991 (आधार वर्ष) से 2001 के बीच 3.4 फीसदी ग्रामीण कार्यबल ने पलायन किया वहीं 2001 (आधार वर्ष) से 2011 के बीच 4.1 फीसदी ग्रामीण श्रमशक्ति ने पलायन किया. आधार वर्ष से शहरी पुरुष कार्य संबंधी प्रवासियो की संख्या 5.1 फीसदी से बढ़कर 6.8 फीसदी हो गई. जनगणना के अंतराल पर काम या रोजगार के सिलसिले में प्रवास बढ़ रहा है, इसमें ग्रामीण क्षेत्र में 57 लाख से 69 लाख वहीं शहरी क्षेत्र में 28 लाख से

48 लाख श्रमशक्ति की बढ़ोत्तरी शामिल है. इससे पता चलता है कि हमारी श्रमशक्ति गतिशील है. हालांकि उसकी दिशा और उसका स्वभाव बदल चुका है.

(डाउन टू अर्थ से साभार)

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