आधी सदी के सियासी सफर में डीएमके नेता ने कैसे बुना तामिलनाडु की राजनीति को.
पिछले सप्ताह एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो, जिसमें चार मुस्कुराते चेहरे थे, काफी चर्चा में रही थी. द्रविड विचारक पेरियर के साथ अन्नादुरई, एमजी रामाचन्द्रन और एम करुणानिधि, ये सभी तामिलनाडु के मुख्यमंत्री बने. यह ऐतिहासिक तस्वीर थी जिसमें एक ही फ्रेम में तामिलनाडु की राजनीति पर गहरा असर डालने वाली चौकड़ी नज़र आ रही थी.
लेकिन इतिहास की किताबें एक अलग कहानी बयां करती हैं. पेरियार कभी भी अन्नादुरई, करुणानिधि और साथियों द्वारा 1949 में द्रविड़ मुनेत्र काझगम (डीएमके) की स्थापना के समर्थन में नहीं थे. उन्हें संशय था कि यह समूह अपने निजी हितों की पूर्ति के लिए राजनीति दल की स्थापना करना चाहता है. राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में कांग्रेस के विरुद्ध प्रभावी विकल्प के तौर पर उभरना चाहता है.
इसके बरक्स पेरियार का द्रविड़ काझगम किसी भी तरह की राजनीतिक भूमिका को प्रोत्साहित नहीं करता था. यह करुणानिधि और उनके गुरु अन्नादुरई के साथ का पहला मौका था, जिसमें साफ जाहिर था कि वे समाज सुधार की जगह सक्रिय राजनेता बनना चाहते हैं. और जहां तक राजनीति की बात थी, वे अपने विचारक पेरियार के खिलाफ भी जाने को तैयार थे.
तामिलनाडु की राजनीति भारत के अन्य राज्यों की राजनीति से भिन्न इस मामले में थी कि यहां राजनीति और सिनेमा का संगम था. यहां भी, करुणानिधि पथप्रदर्शक के रूप में उभरे. सिनेमाई पर्दे पर द्रविड़ विचारधारा का प्रसार किया जा सकता था. द्रविड़ विचारधारा, जो ब्राह्मणवाद और हिंदी के वर्चस्व के खिलाफ थी, दर्शकों को सिनेमा के जरिए नास्तिकता का जीवन दर्शन बताना- यह सिनेमा हॉल के अंधेरे में दर्शकों पर असर करती थी.
करुणानिधि एक कुशल डॉयलॉग लेखक और कवि थे जिनकी लेखनी स्क्रीन पर एमजीआर के प्रभाव को बढ़ा दिया करती थी. दोनों ने डीएमके के दर्शन का प्रचार प्रसार किया. उन्होंने यकीन करने लायक कहानियों के जरिए अपनी राजनीति का प्रसार किया. ऐसा लगता था मानो, करुणानिधि और एमजीआर दोनों चौबीसों घंटे चुनाव अभियान में जुटे हों.
1957 में करुणानिधि ने कुलिथलइ से पहली बार विधानसभा चुनाव जीता. यह करुणानिधि के राजनीतिक सफर की एक बेहद शानदार शुरुआत थी. वह 12 बार विधानसभा में चुने गए और पांच बार राज्य के मुख्यमंत्री बने.
अगर करुणानिधि के राजनीतिक सफर के दूसरे पहलू पर गौर करें तो उन्हें अपने राजनीतिक विरोधियों के प्रति कटुता और विद्रूप के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. करुणानिधि और एमजीआर के बीच दूरियां इसी व्यवहार का नतीजा थी. करुणानिधि को लगता था कि एमजीआर जो राजनीति में उनसे जूनियर हैं और महज एक ‘आम एक्टर’ हैं, वह डीएमके के स्टार प्रचारक बन गए. ईर्ष्या की भावना इस कदर थी कि करुणानिधि ने अपने सबसे बड़े बेटे एमके मुथु को एमजीआर की चमक कम करने के लिए सिनेमा में उतार दिया. हालांकि यह क़दम उल्टा पड़ा. डीएमके के बही-खाता संबंधित विवाद के बाद एमजीआर को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. अभिनेता-राजनेता एमजीआर ने अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कझग़म (एडीएमके) की स्थापना की.
तामिलनाडु की राजनीति का एक पक्ष यह भी है कि राजनीतिक दल राजकीय प्रतिबद्धताओं से पार पाने के लिए नई दिल्ली की राजनीति में अस्वभाविक भूमिका निभाते हैं. सबसे पहले यह अवसर एमजीआर के हिस्से आया, जब उन्होंने करुणानिधि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए मेमोरेंडम जमा किया. जनवरी 1976 में डीएमके सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और भ्रष्टाचार की आरोपों के जांच के लिए जस्टिस सरकारिया आयोग का गठन किया गया. करुणानिधि की बारी 1980 में आई, जब उन्होंने एमजीआर को बर्खास्त करवा दिया. जयललिता ने भी यही कोशिश की, 1998 के बाद वाजपेयी सरकार पर दबाव बनाकर करुणानिधि सरकार को बर्खास्त करवाया.
केन्द्र सरकार का हिस्सा रहने के सिलसिले में एमजीआर का एक ही मकसद था, “दिल्ली से कभी बैर नहीं करना”. करुणानिधि ने भी एमजीआर से सीख लेते हुए सभी राजनीतिक दलों से रिश्ता बनाकर चलने की कोशिश की. उनकी डीएमके एनडीए सरकार का हिस्सा रही और पाला बदलकर यूपीए के साथ भी गई. कावेरी हॉस्पिटल के बाहर सभी राजनीतिक दलों के नेताओं का तांता इन्हीं राजनीतिक रिश्तों की जमापूंजी है.
दुर्भाग्यवश, करुणानिधि के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका निभाने की पहल कामयाब न हो सकी. जबकि डीएमके ने सत्ता में रहते हुए तामिलनाडु की सभी आर्थिक गतिविधियों पर अपनी पकड़ बना रखी थी. करुणानिधि परिवार से जुड़े ए राजा की टेलिकॉम मंत्रालय में भूमिका की वजह से 2011 में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. करुणानिधि की विरासत पर टूजी घोटाले के दाग लगे थे जिसमें उनकी बेटी कनीमोझी को गिरफ्तार किया गया और बाद में वह जेल भी गईं. कनामोझी को बरी किए जाने के बावजूद जनता के बीच छवि पर लगा बट्टा, जिसे बाद तक ठीक नहीं किया जा सका.
करुणानिधि की मृत्यु से राष्ट्रीय राजनीति पर क्या फर्क पड़ेगा? जयललिता और करुणानिधि के निधन के बाद दिल्ली की राजनीति में तमिलनाडु की भूमिका अब दूर की कौड़ी लगती है. स्टालिन और एआईएडीएमके दोनों की ही राष्ट्रीय छवि नहीं है और उन्हें क्षेत्रीय राजनेताओं के रूप में देखा जाता है. स्टालिन को अभी तक राष्ट्रीय राजनीति में प्रयोग नहीं किया गया है, इतने वर्षों में उन्हें प्रिंस चार्ल्स की तरह की देखा गया है. और एआईएडीएमके जरूरत से ज्यादा भाजपा की पैरोकार है, यह चेन्नई में अब कोई राज की बात नहीं है.
करुणानिधि ऐसे राजनेता नहीं थे जिन्हें तामिलनाडु के काम करवाने के लिए दिल्ली-चेन्नई का रास्ता पकड़ना पड़े. वे अपने विश्वसनीय भतीजे, पहले मुरासोली मारन और उनके निधन के बाद दयानिधि मारन और कनीमोझी के जरिए काम करते थे. करुणानिधि अपनी शक्ति का इस्तेमाल दिल्ली की सांस लेकर नहीं बल्कि गोपालपुरम से ही रस्सियां खींचकर कर लिया करते थे.
एआईएडीएमके से अलग, डीएमके में विरासत किसके हाथों सौंपी जाएगी, यह स्पष्ट है. स्टालिन मुख्य भूमिका अख्तियार करेंगे. कनीमोझी दूसरे नंबर पर रहेंगी. हालांकि उनके बड़े भाई अझागिरी पार्टी से बाहर हैं, उनकी ओर से दिक्कतें पैदा की जा सकती हैं. संभावना है कि वह 2019 में स्टालिन के प्रदर्शन का इंतज़ार जरूर करेंगे. खराब प्रदर्शन डीएमके के भीतर तलवारें खींच सकता है.
28 जुलाई, जिस दिन करुणानिधि को अस्पताल को भर्ती करवाया गया था, वह डीएमके अध्यक्ष के रूप में 50वें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे. अब बेशक पार्टी को नए नेतृत्व की जरूरत आ पड़ी है.