जब भी कर्नाटक में 2018 की पहली तिमाही में बंद के आंकड़े जारी होंगे, यह बात तय मानी जाय कि, यह अपने पड़ोसी केरल को बहुत पीछे छोड़ देगा.
चुनावी मौसम में, कन्नड़ समर्थक संगठनों के लिए स्थितियां मुफीद नहीं हैं. ऐसे में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 25 जनवरी को रणनीतिक नजरिए से महत्वपूर्ण कर्नाटक बंद का ऐलान किया. यह बंद सूबे में चल रही भाजपा की परिवर्तन यात्रा के समापन के मौके पर आयोजित किया गया.
4 फरवरी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बंगलुरू में पार्टी के चुनाव प्रचार की शुरुरात करने जा रहे है, लेकिन, बंगलुरू में उनका स्वागत बंद से किया जाएगा. बीजेपी को लगता है कि उस मौके पर बंद के ऐलान के पीछे दरअसल सिद्धारमैय्या और कांग्रेस सरकार है. बीजेपी ने 10 फरवरी को इसका जवाब देने की धमकी दी है जब राहुल गांधी कांग्रेस के चुनाव प्रचार के लिए कर्नाटक में होंगे. बीजेपी का यह मानना है कि अमित शाह के कार्यक्रम को बाधित करने के लिए बंद को तय तारीख 27 जनवरी, से दो दिन पहले बढ़ाकर 25 किया गया था.
कर्नाटक और बेंगलुरु में बंद इसीलिए बुलाया गया है क्योंकि राज्य को महादयी नदी से अपने हिस्से का अधिकतर पानी नहीं मिला है. पानी की लड़ाई पुरानी है. कर्नाटक और गोवा के बीच 77 किमी लंबी महादयी नदी (गोवा में मांडोवी नदी कहा जाता है) को लेकर विवाद है. यह नदी उत्तरी कर्नाटक के पश्चिमी घाट में पड़ने वाले बेलागावी जिले से शुरू होती है और ज्यादातर हिस्सा गोवा में बहते हुए अरब सागर में मिल जाती है.
महादयी नदी कर्नाटक में 29 किलोमीटर और गोवा में 52 किलोमीटर तक फैली है, लेकिन इसका जल संचय क्षेत्र कर्नाटक में करीब 2032 किलोमीटर और गोवा में 1580 किलोमीटर इलाके में फैला है.
डेढ़ दशक से भी अधिक समय से कर्नाटक, कलसा और बांदुरी में दो नहरों के निर्माण की योजना बना रहा है. इससे उसके उत्तरी हिस्से में पड़ने वाले चार जिलों की सिंचाई और पेयजल की जरूरतें पूरी होती हैं. इन जिलों में हुब्ली-धारवाड़ भी शामिल हैं. गोवा सरकार इसका विरोध कर रही है. यह विवाद अब महादयी जल प्राधिकरण के पास है.
महादयी एक चुनावी मुद्दा बन गया है. गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर ने दिसंबर में अपने समकक्ष सिद्धारमैय्या के बजाय पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा को एक पत्र लिखा. इसमें उन्होंने लिखा कि गोवा पीने के पानी के लिए हिस्सा देगा.
लेकिन शिवसेना इस प्रस्ताव के विरोध में खड़ी हो गई. जबकि कांग्रेस ने कर्नाटक और गोवा में भाजपा को चुनाव से पहले मैच फिक्सिंग करने की कोशिश करने का आरोप लगाया. भाजपा के साथ आने से किसान संगठन अब पानी के मुद्दे को सुलझाना चाहते हैं.
कर्नाटक इस समय दो प्रमुख नदी जल साझेदारी से जुड़े विवाद में शामिल है- कावेरी पर तमिलनाडु के साथ और महादयी पर गोवा के साथ.
जैसा कि 2016 में हमने देखा था, कावेरी विवाद में और इससे पहले भी कई बार, कन्नड़ चालावली वाटल पक्ष के नेता वाटल नागराज, कर्नाटक संगठनों के साथ बंद आयोजित करने में आगे रहते थे. इस बार भी उन्होंने आगे बढ़कर बंद का आह्वान किया. नागराज खुद को कन्नड़ हितों के हितैषी रूप में पेश करते हैं, लेकिन उनके आलोचक उन्हें किराए का आंदोलनकारी बताते हैं. कावेरी विवाद पर नागराज के बंद के आह्वानों से कर्नाटक को कोई फायदा तो नहीं हुआ लेकिन इसके जरिए नागराज जैसे लोगों को राजनीतिक व्यवस्था में एक वैधता जरूर मिल गई.
ये कन्नड़ संगठन अक्सर लोगों की भावनाओं को भड़काने की कोशिश करते हैं. कांग्रेस को स्पष्ट रूप से लाभ मिलता है. भाजपा की आलोचना इसलिए भी होती है क्योंकि नई दिल्ली और पंजिम में सत्ता होने के बावजूद, वो इस मुद्दे को हल करने में विफल रही है. वास्तविक स्थिति यह है कि महादयी नदी जल ट्रिब्यूनल ही इस पर अंतिम निर्णय देगा.
सिद्धारमैय्या ने विधानसभा में कई बार प्रधानमंत्री मोदी से महादयी मुद्दे को हल करने का अनुरोध किया है. यह कांग्रेस का दोष मुक्त होने का तरीका है. इसके जरिए वह ऐसे सभी आरोपों से बचना चाहती है क्योंकि वह बॉम्बे-कर्नाटक क्षेत्र को पर्याप्त पानी उपलब्ध कराने में असफल सिद्ध हुई है.
आगामी दोनों बंद सफल होने की उम्मीद है, जिसमें अधिकांश शैक्षिक संस्थान और वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों के बंद रहने का अनुमान है. लेकिन यह जानना दिलचिस्प होगा कि यह बंद किस तरह से कर्नाटक के वोट को प्रभावित करेगा.
25 जनवरी को बेंगलुरू की सड़कों पर 15,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी तैनात थे. जाहिर है यह बंगलुरूवासियों की नाराजगी की पर्याप्त वजह थी. जब कर्नाटक का राजनीतिक नेतृत्व इस मुद्दे को हल करने में असफल रहा है, तो कर्नाटक की आम जनता को असुविधा में डालना कितना सही है. राजनीतिक दलों और उनके सहयोगियों ने विरोध के साधन के रूप में बंद का सहारा लेना शुरू कर दिया है जो गुन्डागर्दी के एक तरीके से अधिक कुछ नहीं हैं, जिसके नतीजे में उगाही को वैधता मिल जाती है. यह इस तरह से है जहां एक ताकतवर आदमी अपनी धमक स्थापित कर झुंड में लोगों का शिकार करता है.
दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों ने एक महत्वपूर्ण मसले का हल निकाल पाने की अपनी असफलता को बंद की आड़ में छिपा दिया है. विडंबना यह है कि उनकी अक्षमता की कीमत आम आदमी चुका रहा है.